
मैंने होंठ भींच लिए। उँगलियाँ ठंड से सुन्न हो चुकी थीं और मुझे कैफीन की सख़्त ज़रूरत थी, लेकिन स्टडी एरिया के दाईं ओर एक खाली कंप्यूटर नज़र आ गया।
"तुझे वॉशरूम नहीं जाना?" काव्या के पास से निकलते हुए मैंने गलियारे में झाँका। हमारी लेक्चर पास वाले ऑडिटोरियम में होनी थी, लेकिन अभी कमरा अँधेरा था।
"जाना तो है," उसने लंबी साँस छोड़ी, "लेकिन सोचा तुझसे ये… बात कर लूँ।"
नहीं, मुझे बात नहीं करनी थी।
"कैंटीन की लाइन अभी बहुत लंबी होगी, ब्रेक में कॉफी ले लेंगे।" मैंने उसका हाथ पकड़कर उसे स्टडी एरिया की तरफ खींचा। "कल रात मैंने अपने एथिक्स एप्लीकेशन का नया ड्राफ्ट प्रोफ़ेसर आद्विक राणा को भेजा था। वो आमतौर पर जल्दी जवाब देते हैं।"
काव्या ने आह भरते हुए कोट उतारा और अपने गले के ऊनी स्कार्फ को ढीला किया।
"और मुझे लगता है उन्होंने शायद इसे कमेटी को भेज दिया होगा।"
"मुझे नहीं लगता," मैंने सिर हिलाया। "वो हमेशा कुछ न कुछ नुक्ताचीनी निकालते हैं। पिछली बार बोले कि इंटरव्यू के बजाय फोकस ग्रुप क्यों नहीं?"
"फोकस ग्रुप मज़ेदार होता," उसने हँसते हुए कहा।
"ये मेरी चौथी रीविज़न है, अब तो उन्हें खुश होना ही पड़ेगा…" मेरे ठंडे हाथों ने मुझे सिस्टम में लॉग इन करते समय पासवर्ड दो बार गलत डालने पर मजबूर कर दिया। लेकिन आख़िरकार मैं सफल हुई—और वहाँ था—एक अनरीड ईमेल, प्रोफ़ेसर आद्विक राणा से।
"उन्होंने जवाब दिया है," मैंने फुसफुसाते हुए कहा। "बस पाँच मिनट पहले।"
काव्या झुककर स्क्रीन में झाँकने लगी। "क्या लिखा है?"
"मुझे खोलने का मन नहीं कर रहा, तू पढ़ ले," मैंने गिड़गिड़ाते हुए कहा।
"हाँ, ज़रूर, लेकिन दिवाली के बाद," उसने सीधा होते हुए बाल झटक दिए। "इतनी टेंशन क्यों ले रही है? आज तो कैंपस का आख़िरी दिन है।"
"मेरे लिए नहीं," मैंने पीछे इशारा किया। "मैं तो दिवाली भी लाइब्रेरी में बिताने वाली हूँ।"
उसका जवाब भीड़ के शोर में दब गया। मैं उन स्टूडेंट्स को देख रही थी जिनके हाथों में गर्म कॉफी और पेस्ट्री के पैकेट थे। जब तक मैं अपने पैरेंट्स से पैसे माँगकर पार्किंग चालान नहीं भरती, ऐसी लक्ज़री मेरे बस की नहीं थी।
"खोल दे ईमेल, अनन्या।"
"ठीक है।" मैंने गहरी साँस लेकर ईमेल खोला। हम दोनों झुककर पढ़ने लगे। मैं दूसरी लाइन तक ही पहुँची थी कि मेरे डिस्टिंक्शन पाने के सपने धड़ाम से टूट गए।
"ये क्या बकवास है?"
कई सिर हमारी तरफ मुड़ गए—उनमें से वो भी, जिसे मैं सबसे आख़िरी में देखना चाहती थी। प्रोफ़ेसर आद्विक राणा ऑडिटोरियम के पास खड़े थे, हाथ में कॉफी का कप थामे। उनकी गहरी, गम्भीर नज़रें मेरी आँखों में पड़ीं और मैं कुर्सी में बेचैन हो गई।
हम पहली बार चार साल पहले मिले थे, जब मैं अंडरग्रैजुएट थी। आज भी उनकी नज़रें मुझ पर टिकतीं तो मेरे गाल गर्म हो जाते थे—और अब मुझे गुस्सा आ रहा था कि वो मेरे हाइपोथिसिस को ऐसे खारिज कैसे कर सकते हैं। ये उनके काम का हिस्सा नहीं था।
काव्या ने भी उन्हें देख लिया और धीरे से बोली, "अब क्या करेगी?"
"मैं… मैं…" मेरी ज़बान लड़खड़ा गई। "मुझे जाना चाहिए… शायद…" मैंने कुर्सी इतनी जल्दी पीछे धकेली कि वो पास से गुजरते एक स्टूडेंट से टकरा गई। उसका चाय का कप गिर गया और गरम चाय उसके जूतों और मेरे नी-हाई बूट्स पर फैल गई—बूट्स जिन्हें मैंने खास आज ही पहना था, उम्मीद में कि शायद प्रोफ़ेसर राणा की नज़र मुझ पर ठहर जाए।
"देखकर नहीं चल सकती?" वो लड़का झल्लाया।
"सॉरी, मैं नया दिला दूँगी।"
"छोड़ो, टाइम नहीं है।"
वो चला गया, और काव्या ने कहा, "मैं टिश्यू ले आती हूँ। तू प्रोफ़ेसर से बात कर ले।"
मैंने बाल सँवारते हुए दरवाज़े की तरफ देखा जहाँ से वो गायब हो चुके थे। उनसे क्या बात करती? उन्होंने महीनों की मेहनत को एक झटके में खारिज कर दिया था। उन्हें पता भी है कि एक एथिक्स एप्लीकेशन तैयार करना कितना लंबा और झंझट वाला प्रोसेस होता है?
असल में दिक़्क़त सिर्फ़ मेरी रिसर्च नहीं थी। दिक़्क़त थी मेरी उनसे फीलिंग्स। मैं चाहती तो मास्टर्स कहीं और कर सकती थी—या ह्यूमन सेक्सुअलिटी में पोस्टग्रैजुएशन के लिए दिल्ली चली जाती। उन्होंने भी एक बार कहा था कि जाना चाहिए, लेकिन मैं यहीं रुकी, सिर्फ़ इस उम्मीद में कि पीएचडी के दौरान वो मेरे गाइड बनेंगे।
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